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विश्व व्यापार संगठन और भारतीय कृषि |
164 सदस्य देशों
वाले विश्व व्यापार संगठन का 11वां मंत्री
स्तरीय सम्मेलन अर्जेटिना के ब्यूनेस आयर्स में सम्पन्न तो हो गया लेकिन इस
सम्मेलन के नतीजों का आंकलन करें तो इस विश्व संस्था के भविष्य पर सवालिया निशान
लग जाते है।
विश्व व्यापार संगठन के आलोचकों ने 1995 में इसके गठन और प्रांरभिक वार्ताओं के दौरान
ही इसके भविष्य को लेकर निराशा व्यक्त की थी। उनका तर्क भी था कि यह संगठन मुख्य
रूप से विकसित देशों की विकासशील देशों के उभरते बाजारों पर कब्जा करने की
सोची-समझी रणनीति है। विकसित तथा विकासशील देशों की अर्थव्यवस्था तकनीक, समाज, शासन प्रणाली, खान-पान, संस्कृृतियों में इतनी भिन्नता है कि एक जैसे
कानूनों के बल पर इतनी विभिन्नताओं को समायोजित नहीं किया जा सकता।
ब्यूनस आयर्स में भारत और दूसरे विकासशील देशों
की खाद्य सुरक्षा नीति पर भी विकसित अर्थव्यवस्थाओं विशेषकर अमेरिका की तिरछी नज़र
रही है। भारत और उसके साथ खड़े बहुसख्ंयक देश चाहते थे कि सार्वजनिक भंडारण,
न्यूनतम समर्थन मूल्य तथा खाद्य सुरक्षा पर उन
संकल्पों का पालन किया जाये जो 2013 में बाली
सम्मेलन तथा 2015 में नैरोबी में
मंत्रीस्तरीय सम्मेलन में व्यक्त किये गये थे। बाली सम्मेलन में शामिल किये गये
‘शांति अनुच्छेद’ के तहत यह प्रावधान था कि अगली बैठक तक इस अस्थायी अनुच्छेद पर
यदि कोई आम राय नहीं बनती और कोई देश तय सीमा से ज्यादा भंडारण करता या सब्सिडी
देता है तो उस पर कोई कार्यवाही नहीं की जा सकेगी। खाद्य सुरक्षा कानून के पारित
हो जाने के बाद भारत की यह सीमा बढ़ सकती है। अफ्रीका महाद्वीप के कुछ देश तो इस
‘कृषि समझौते’ में खाद्यान्न के अलावा अन्य खाद्य पदार्थो के खरीद की छूट भी चाहते
है। अमेरिका व अन्य विकसित देश अपने एजेंडे पर अड़े हुए है पर भारत खाद्य सुरक्षा
अधिनियम को ध्यान में रखकर कृषि समझौते का स्थायी समाधान चाहता है। इस मुद्दे पर
दूसरे विकासशील देश भारत के साथ सहमत है।
एक अन्य मसला आयात शुल्क को लेकर है जो ‘स्पेशल
सेफगार्ड मैकन्जिम’ कहलाता है। इसमें प्रावधान है कि अगर किसी विकसित देश की
सब्सिडी के कारण किसी विकासशील देश में उसके कृषि उत्पादों का आयात बढ़ता है तो
विकासशील देश की घरेलू बाजार में कीमतें ज्यादा गिर जायेगी। इससे बचने के लिए वह
देश आयात शुल्क लगा सकता है। यह प्रावधान भी भारत के लिए महत्वपूर्ण है। लेकिन
विकसित देश अपने किसानों को इतनी अधिक सब्सिडी देते है कि भारत द्वारा अधिकतम आयात
शुल्क लगाकर भी मकसद हल नहीं होता।
कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था तथा 40 करोड़ किसानों का हित भारत के लिए सर्वोपरि है।
न्यूनतम समर्थन मूल्य तथा खाद्य सुरक्षा के मुद्दे को लेकर कभी भी समझौता नहीं
किया जा सकता। मुरासोली मारन से लेकर अरूण जेटली, कमलनाथ, निर्मला सीतारमन
तथा वर्तमान में सुरेश प्रभु जितने भी वाणिज्य मंत्री मंत्रीस्तरीय बैठकों में
हिस्सा लेने गये सभी ने भारत के पक्ष को मजबूती से रखा है।
अमेरिका व अन्य विकसित यूरोपिय देश कृषि
समझौतों के स्थायी समाधान पर ध्यान न देकर ई-कामर्स, निवेश सुगमता, मत्सय पालन जैसे नये मुद्दों को वार्ता के एजेंडें में शामिल करवाना चाहते थे।
भारत को यह अनुभव है कि आयात शुल्क कम करने से घरेलू उद्योगों पर विपरित प्रभाव
पड़ता है। अगर निवेश सुगमता का मुद्दा मान लिया जायेगा तो स्थानीय सरकारें पंगु हो
जायेगी। निवेश एक द्विपक्षीय मुद्दा है जिसे विश्व व्यापार संगठन जैसी बहुपक्षीय
संस्था तय नहीं कर सकती।
भारत ने इन वार्ताओं में नये मुद्दों का दृढ़ता
से विरोध किया क्योंकि नये मुद्दों को वार्ता के लिए आगे बढ़ाने से पहले खाद्य
सुरक्षा, कृषि सब्सिडी, भंडारण, सरकारी खरीद जैसे मुद्दों पर आम राय के साथ स्थायी समाधान
जरूरी हैं उसके बाद ही नये मुद्दों को हाथ मे लिया जाये।
अमेरिका, यूरोपीय यूनियन के विभिन्न देश तथा आस्ट्रेलिया पैंतरबाजी
से अपने यहाँ किसानों को दी जा रही ज्यादातर सब्सिडी को हरे व नीले वाक्स के अंतर्गत
अधिसूचित करवा चुके है। भारत और दूसरे विकासशील देशों में कृषि उत्पादन को
प्रोत्साहन देने वाली सब्सिडी अम्बर वाक्स के तहत आती है। अगर सरकार किसानों को
सस्ती बिजली देती है तो यह अम्बर सब्सिडी में आयेगा इससे किसान का लागत मूल्य कम
हो जाता है।
भारत के किसानों को ब्लू और ग्रीन बाक्स
सब्सिडी नहीं मिलती। उन्हें अपने खर्च पर ही मकान, टयूबवैल, टैक्टर, मजदूरी, खाद, बिजली का खर्च
वहन करना पड़ता है। इसलिए जीविका के लिए उसे अपनी फसल के अच्छे दाम चाहिए। लेकिन
विकसित देशों के सस्ते खाद्यान्य मूल्यों के कारण अंतराष्ट्रीय बाजार में भारतीय
खाद्यान्न का बाजार भाव टिक नही पाता। इससे विश्व व्यापार संगठन के वजूद में आने
के बाद से भारतीय किसानों की आर्थिक हालात बिगडी है। इसका कारण यह है कि अमीर
देशों की सरकारें अपने किसानों को पूंजी खर्च सरकार देती है। जैसे मकान, टयूबवैल, ट्रैक्टर खरीदने पर भी सब्सिडी मिलती है। उसे अपनी जेब से
सिर्फ मजदूरी, खाद, बिजली पर ही खर्च करना पड़ता है। इसलिए उसका
लागत मूल्य कम रहता है। जिसका विपरित असर भारतीय कृषि व्यवस्था और किसानों की
आर्थिक हालात पर पड़ता है।
एक दूसरा कारण भारत में मौसम पर आधारित कृषि व्यवस्था
है। जोत छोटी होने के कारण भी उपज कम रहती है। भारत की सरकार को अन्य विकासशील
देशों के साथ मिलकर कृषि और किसानों के मुद्दे पर मजबूत लाभबंदी करनी होगी।
विश्व-व्यापार संगठन में इन मुद्दों से जुझते
समय भारत को एक दीर्घकालीक रणनीति पर विचार करना चाहिए। समान विचारधारा व समान
परिस्थितियों वाले देशों से इस मुद्दे पर अलग से विचार-विमर्श किया जा सकता है
ताकि इस विश्व संस्था से निर्णय की प्रक्रिया सबको साथ लेकर चल सके।
प्रायः यह देखने में आया है कि विकासशील देशों
में यह भावना बढ़ती जा रही है कि विश्व व्यापार संगठन विकसित देशों द्वारा अपनी
शर्तो को विकासशील देशों पर थोपने का एक माध्यम बन गया है जो इस संस्था की सफलता
पर प्रशन चिन्ह लगाता है।
अगर विकसित देश ई-कामर्स, निवेश सुगमता, मत्सय पालन जैसे नये मुद्दे चर्चा के लिए लाते है तो भारत
को भी अपनी आई.टी. तथा अन्य तकनीकी कुशल श्रमबल को विश्व में स्वतंत्र रूप से
कार्य करने का मुद्दा उठाना चाहिए। क्या सिर्फ वस्तुएं ही विश्व-व्यापार की श्रेणी
में आयेगी? सेवा क्षेत्र मे भारतीय
कुशलता तथा श्रमबल को भी क्यों विश्व व्यापार संगठन से नही जोड़ा जा सकता। क्यों
अमेरिका में उनके वीजा आवेदनों पर रोक लगाने का काम किया जा रहा है?
स्पष्ट है कि भारत की विशाल आबादी के लिए
खाद्य-सुरक्षा, भंडारण तथा
सार्वजनिक खरीद न केवल गरीबी रेखा से नीचे जीवन जीने वाले नागरिकों अपितु किसानों
के लिए भी एक बड़ा मुद्दा है जिस पर कोई भी सरकार समझौता नहीं कर सकती।
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