कविता अब मुझे बेगानी सी लगती है
कविता अब मुझे बेगानी सी लगती है
चुनावी भाषण सा लगती है
लफ्फाज कहानी सी लगती है
कविता अब मुझे बेगानी सी लागती है
कभी वो दिन भी थे
जब खोया सा रहता था
तेरी लय – बिम्ब की गलियों में
कभी घंटों सोया रहता था
तेरे खवाबों के तकियों पर
जाने इन दिनों क्या हुआ
कविता बहकी जवानी सी लगती है
कविता अब मुझे बेगानी सी लगती है
कविता तुमने बहुत लिखे
भूख के फलसफे
वंचितों के संघर्ष
किसानों के कर्ज
क्रांति की बातें
पर ख्याली पुलाव से पेट भरने की कोशिश
बेमानी सी लगती है
कविता अब मुझे बेगानी सी लगती है
कविता क्यों जरुरी है
मै खुद को कैसे समझाऊ
खुद पुस्तकालयों में कैद पड़ी है
मेरी मुक्ति के तराने गाती है
झोपडी में रहने वालों को
महलों के ख्वाब दिखाती है
हकीकत को नज़रंदाज़ करना भी
हरकत नादानी लगती है
कविता अब मुझे बेगानी सी लगती है
ये भी कड़वा सच है भाई
कविता मेरे युग में तो
मंचों से चींखती गाली है
बुझ चुके कुंठित दीयों की
ये अंधियारी दीवाली है
शब्दों के चने भुनती
बुढिया भटियारी है
कभी दाद कभी ताली मांगे
कवि भी आज भिखारी है
फिर कविता से इतनी उम्मीदें
मुझे दुनिया दीवानी लगती है
कविता अब मुझे बेगानी सी लगती है
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